“जीवन में दुःख क्यों है?” – ओशो
दुःख चुनौती है; विकास का अवसर है। दुःख अनिवार्य है। दुःख के बिना तुम जागोगे नहीं। कौन जगाएगा तुम्हें? हालत तो यह है कि दुःख भी नहीं जगा पा रहा है। तुमने दुःख से भी अपने को धीरे-धीरे राजी कर लिए है ।
तुम्हारी हालत वैसी ही है जैसे कोई रेलवे स्टेशन पर रहता है, तो ट्रेनें निकलती रहती हैं, आती-जाती रहती हैं, शंटिंग होता रहता है गाडिय़ों का और शोरगुल मचता रहता है, मगर उसकी नींद नहीं टूटती। तुम इतने सो गए हो कि अब तुम्हें दुःख भी नहीं जगाता मालूम पड़ता। लेकिन दुःख का इस अस्तित्व में उपयोग एक ही है कि दुःख माँजता है, जगाता है। दुःख बुरा नहीं है। दुःख न हो तो तुम सब गोबर के ढेर हो जाओगे। दुःख तुम्हें आत्मा देता है। दुःख चुनौती है। इसलिए दुःख को तुम कैसा लेते हो, इस पर सब निर्भर है। दुःख को चुनौती की तरह लो। लेकिन तुम्हें कुछ और ही सिखाया गया है। तुम्हें सिखाया गया है कि दुःख तुम्हारे पापकर्मों का फल है। सब बकवास! दुःख चुनौती है, एक अवसर है। तुम दुःख को देखो और जागो। दुःख के तीर को चुभने दो भीतर, उसीसे तुम्हें परमात्मा की याद आनी शुरू होगी।
एक सूफी फकीर था, शेख फरीद। उसकी प्रार्थना में एक बात हमेशा होती थी – उसके शिष्य उससे पूछने लगे कि यह बात हमारी समझ में नहीं आती, हम भी प्रार्थना करते हैं, औरों को भी हमने प्रार्थना करते देखा है, लेकिन यह बात हमें कभी समझ में नहीं आती, तुम रोज-रोज यह क्या कहते हो कि हे प्रभु, थोड़ा दुःख मुझे तू रोज देते रहना! यह भी कोई प्रार्थना है? लोग प्रार्थना करते हैं, सुख दो; और तुम प्रार्थना करते हो, हे प्रभु, थोड़ा दुःख रोज देते रहना!
फरीद ने कहा कि सुख में तो मैं सो जाता हूँ और दुःख मुझे जगाता है। सुख में तो मैं अक्सर परमात्मा को भूल जाता हूँ और दुःख में मुझे उसकी याद आती है। दुःख मुझे उसके करीब लाता है। इसलिए मैं प्रार्थना करता हूँ, हे प्रभु, इतना कृपालु मत हो जाना कि सुख-ही-सुख दे दे। क्योंकि मुझे अभी अपने पर भरोसा नहीं है। तू सुख-ही-सुख दे दे तो मैं सो ही जाऊँ! जगाने को ही कोई बात नहीं रह जाए। अलार्म ही बंद हो गया। तू अलार्म बजाता रहना, थोड़ा-थोड़ा दुःख देते रहना, ताकि याद उठती रहे, मैं तुझे भूल न पाऊँ, तेरा विस्मरण न हो जाए। देखते हो, देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है!
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ, यह तुम्हारे पाप इत्यादि का फल नहीं है जो तुम भोग रहे हो। यह जीवन की सहज व्यवस्था का अंग है।
जहनो-दिल में..अगर बसीरत हो..
तीरगी कैफे-नूर देती है…
जीस्त की राह में हर-इक ठोकर..
जिंदगी का शऊर देती है..
‘जहनो-दिल में अगर बसीरत हो’…
तीरगी कैफे-नूर देती है…
जीस्त की राह में हर-इक ठोकर..
जिंदगी का शऊर देती है..
‘जहनो-दिल में अगर बसीरत हो’…
अगर देखने की शक्ति हो , क्षमता हो, आँख हो तो अंधेरे को ही प्रकाश में बदल लेने की कला आ जाती है।
‘जीस्त की राह में हर-इक ठोकर’. . .
’जिंदगी का शऊर देती है‘
’जिंदगी का शऊर देती है‘
और जिंदगी की राह में हर-इक ठोकर जिंदगी का राज खोलती है, जिंदगी का रहस्य खोलती है; जिंदगी के द्वार खुलते हैं, जिंदगी की महिमा प्रगट होती है, जीवन का प्रसाद मिलता है। सब तुम पर निर्भर है।
जहनो-दिल में अगर बसीरत हो
तीरगी कैफे-नूर देती है
जीस्त की राह में हर-इक ठोकर
जिंदगी का शऊर देती है
हादसाते-हयात की आँधी
हस्बेफीक रास आती है
तेज करती है सोजा-अहले-कमाल
नाकिसों के दिये बुझाती है
इंतकामे-गमो-अलम लेंगे
जिंदगी को बदल के दम लेंगे
मर गए तो कजाए-गेती के
जर्रे-जर्रे में हम जनम लेंगे
जिंदगी में न कोई गम हो अगर
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता ?
तीरगी कैफे-नूर देती है
जीस्त की राह में हर-इक ठोकर
जिंदगी का शऊर देती है
हादसाते-हयात की आँधी
हस्बेफीक रास आती है
तेज करती है सोजा-अहले-कमाल
नाकिसों के दिये बुझाती है
इंतकामे-गमो-अलम लेंगे
जिंदगी को बदल के दम लेंगे
मर गए तो कजाए-गेती के
जर्रे-जर्रे में हम जनम लेंगे
जिंदगी में न कोई गम हो अगर
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता ?
जिंदगी में भटकने का भी एक मजा है, क्योंकि भटककर पाने का एक मजा है। जिसने खोया नहीं, उसे पाने का मजा नहीं मिलता। इस जिंदगी के विरोधाभास को जो समझ लेगा, उसने जीवन का सारा राज़ समझ लिया। लोग पूछते हैं, हम परमात्मा से दूर क्यों हो गए? इसीलिए कि हम पास हो सकें। दूर न होओगे तो पास होने का मजा नहीं है।
मछली को निकाल लो सागर से, छोड़ दो घाट पर, तड़फती है। पहली दफा पता चलता है कि सागर में होने का मजा क्या था। सागर में थी एक क्षण पहले तक, तब तक सागर का कोई पता नहीं था। अब अगर यह सागर में वापस गिरेगी तो अहोभाव होगा; अब यह जानेगी कि सागर का कितना-कितना उपकार है मेरे ऊपर। दूर हुए बिना पास होने का मजा नहीं होता। विरह की अग्नि के बिना मिलन के फूल नहीं खिलते। विरह की लपटों में ही मिलन के फूल खिलते हैं।
‘हादसाते-हयात की आँधी‘. . . जीवन की दुर्घटनाएँ और दुर्घटनाओं की आँधी
‘हस्बेफीक रास आती है’. . . पात्रता के अनुसार रास आती है।
‘हस्बेफीक रास आती है’. . . पात्रता के अनुसार रास आती है।
तुमने देखा? तूफान आता है, छोटे-मोटे दीयों को बुझा देता है; और घर में आग लगी हो, या जंगल में आग लगी हो, तो और लपटों को बढ़ा देता है। यह बड़े मजे की बात है, छोटा दीया बुझ जाता है और लपटें जंगल की और बढ़ जाती हैं। तूफान वही था। सब पात्रता के अनुसार है।
तुम जऱा जागो! तुम जरा जंगल की आग बनो! और तुम पाओगे कि जिंदगी की हर आँधी तुम्हारी लपटों को बढ़ाती है; तुम्हें बुझा नहीं पाती। जिंदगी का हर दुःख तुम्हें परमात्मा के सुख के करीब लाता है।
तेज करती है सोजे-अहले-कमाल
नाकिसों के दिये बुझाती है
जिंदगी में न कोई गम हो अगर. .
नाकिसों के दिये बुझाती है
जिंदगी में न कोई गम हो अगर. .
और अगर दुःख न हो जीवन में, जिंदगी का मजा नहीं मिलता। तो सुख का अनुभव ही नहीं हो सकेगा। काँटों के बिना गुलाब के फूल में कोई रस नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। अँधेरी रातों के बिना सुबह की ताजगी नहीं है। और मौत के अंधेरे के बिना जीवन का प्रकाश कहाँ?
जिंदगी में न कोई गम हो अगर
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता
जिंदगी का मजा नहीं मिलता
राह आसान हो तो रहरौ को
गुमरही का मजा नहीं मिलता
देखो इस तरह से; तब संसार भी परमात्मा के मार्ग पर एक पड़ाव है। फिर संसार परमात्मा का विपरीत नहीं है, विरोध नहीं है, वरन् परमात्मा को पाने की ही चेष्टा का एक अनिवार्य अंग है। यह दूरी पास आने की पुकार है। यह दुःख जागने की सूचना है।
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